14 February, 2018

यादों का पन्ना (आत्मकथात्मक कविता) ... डॉ शरद सिंह

 11 फरवरी 2018 को पाठकमंच की कविगोष्ठी में मैंने अपनी यह आत्मकथात्मक कविता पढ़ी थी ...
Dr (Miss)Sharad Singh

यादों का पन्ना
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         - डॉ (सुश्री) शरद सिंह

खुली आज यूं ही
जो यादों की पुस्तक
दिया फिर किसी ने
बड़ी ज़ोर दस्तक
मुझे याद आई जन्म-भूमि ‘पन्ना’
जहां मैंने बचपन से
मां को पुकारा था ‘मैया’ और ‘नन्ना’
खिलौनों भरे वो तो दिन थे निराले
थे नाना के किस्से और मामा की बातें
पढ़ाई के दिन थे, कहानी की रातें
वो दीदी से झगड़े,
कभी भी न तगड़े
सदा साथ खेले
गए साथ मेले
वो खिपड़ी, वो गद्दा
वो छुवा-छुवाईल
वो काग़ज़ की नावें
और राकेट-मिसाईल
वो निब वाली पेनें
वो स्याही की दावात
कि ’अक्ती में आती थी  (’अक्षय तृतिया)
गुड्डे की बारात
वो पहाड़, वो कोठी,
वो ‘मज़ार साब’
न हिन्दू, न मुस्लिम
नहीं कोई रूआब
वो ढेरों ’मुकरबे (’मकबरे)
वो हनुमान मंदिर,
वो बाज़ार छोटा,
वो बल्देव मंदिर
वो हलवाई के शुद्ध पेड़े सलोने
वो लड्डू, कलाकंद, छ्योले के दोने
बहुत ही मधुर और मीठी थी दुनिया
वो बऊ कामवाली
थी इक उसकी टुनिया
जहां मेरा घर था
हिरणबाग था वो
सुना था -
कभी था वो हिरणों का बाड़ा
लगे है मगर अब तो बेहद उजाड़ा
कहीं खो गया मेरे बचपन का पन्ना
फटी डायरी, अब ने धेला, न धन्ना
कि यादों में वो आज भी है वहीं पर
रहेगा वो दिल में, रहूं मैं कहीं पर !
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